देवासुर संग्राम
हमारे अन्दर प्रतिक्षण देवासुर संग्राम चल रहा होता है। काम, क्रोध, मद, लोभ, मत्सर, ईर्ष्या, द्वेष आदि अनेक असुरों की सेना आत्मा पर प्रहार करती रहती है। आत्मा बेचारा अकेला है और शत्रु सेना बड़ी प्रबल। कैसे पार पाएगा यह आत्मा। वेद कहते हैं - हे चन्द्र ! यदि तू मन को स्थिर कर सके तो दूर अकेला ही बहुतों से लड़ने को पर्याप्त है। इसलिए मन का संयम करने पर बल दिया है। मन की शक्ति को देखते हुए ही महर्षि पतंजलि ने योग की परिभाषा में बड़ा सुन्दर कहा है -किसी कार्य की सफलता में मन स्थिर करना अत्यन्तावश्यक है। मन जहाँ भी जाता है, वहीँ भागदौड़ कर अपना ठिकाना बना लेता है।
ऋषियों का यह भी कहना है कि यह मन समस्तपदार्थों का अन्त शीघ्र ही पा लेता है और वहाँ से शीघ्र दूसरे स्थान पर भाग भी जाता है। अतः अन्त इसे कतार में लगाओ, पार न पाने से वहीँ लगा रहेगा। स्मृतिकारों का यह भी कहना है कि मन जीवन में बन्धन और मोक्ष का कारण भी है।
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प्रार्थना से कामना सिद्धि मनुष्य अनेक शुभ अभिलाषाओं से कुछ यज्ञों को प्रारम्भ करते हैं और चाहते हैं कि यज्ञ सफल हो जाएँ, परन्तु कोई भी यज्ञ तब तक सफल नहीं हो सकता जब तक उस यज्ञ में देवों के देव अग्निरूप परमात्मा पूरी तरह न व्याप रहे हों। चूँकि जगत में परमात्मा के अटल नियमों व दिव्य-शक्तियों के अर्थात् देवों के द्वारा ही...